दीवारों का ये जंगल जिसमें सन्नाटा पसरा है ..
जिस दिन तुम आ जाते हो, सचमुच घर जैसा लगता है
उसका चर्चा हो तो मन में लहरें उठने लगती हैं
उसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है
पानी, धूप, अनाज जुटा लूं ......
फिर तेरा सिंगार निहारूं
दाल खदकती, सिकती रोटी ...
इनमें ही करतार निहारूं
तेज़ धार ओ' भंवर न देखूं
मैं नदिया के पार निहारूं ......
जिस दिन तुम आ जाते हो, सचमुच घर जैसा लगता है
उसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है
पानी, धूप, अनाज जुटा लूं ......
फिर तेरा सिंगार निहारूं
दाल खदकती, सिकती रोटी ...
इनमें ही करतार निहारूं
तेज़ धार ओ' भंवर न देखूं
मैं नदिया के पार निहारूं ......
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